Friday, November 30, 2012

दुश्वारी

आज जावेद अख़्तर साहब की एक पूरी नज़्म लाया हूँ ... यह नज़्म मुझे बेहद अज़ीज़ है ... 


दुश्वारी / जावेद अख़्तर


मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख़्त !
भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त
जो हममें कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं

2 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

सुभानाल्लाह ,बे-मिसाल !!

विभा रानी श्रीवास्तव said...

कभी भी मैं यहाँ से कुछ ले जा सकती हूँ ..... ??
भाई का है ..... :))हक तो बनता है .......... ??

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