Tuesday, January 14, 2014

कैफ़ी आज़मी साहब की ९५ वीं जयंती पर विशेष

सोमनाथ - कैफ़ी आज़मी

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बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है

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कैफ़ी आज़मी साहब की ९५ वीं जयंती पर उनको शत शत नमन !

1 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

आभार...शुभकामनायें..

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