Friday, February 8, 2019
Thursday, December 27, 2018
मिर्ज़ा गालिब की २२१ वीं जयंती पर विशेष
दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या / ग़ालिब
दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई[1] फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या
शब्दार्थ:
- ↑ सहायता
- ↑ उपेक्षा
- ↑ मालिक, रखवाला
- ↑ महान उपदेशक
- ↑ आँखें और दिल रस्ते में गलीचे की तरह बिछ जाएगें
- ↑ तलवार और कफ़न
- ↑ प्रशन उठाना, ना-नुकर करना
- ↑ उपदेशक
- ↑ जु्ल्फ़ों के कैदी
- ↑ कैदखाना
- ↑ नगर
- ↑ प्रेम के दुखों का अकाल
हैप्पी बर्थड़े चचा ग़ालिब
Friday, October 12, 2018
जन्मदिन मुबारक निदा साहब
नील गगन पर बैठ
कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे
पर्वत की ऊँची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे
आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में
कब तक
आराम करोगे
मेरा छप्पर टपक रहा है
बनकर सूरज
इसे सुखाओ
खाली है
आटे का कनस्तर
बनकर गेहूँ
इसमें आओ
माँ का चश्मा
टूट गया है
बनकर शीशा
इसे बनाओ
चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद
इन्हें बहलाओ
शाम हुई है
चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ
काम बहुत हैं
हाथ बटाओ अल्ला मियाँ
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्ला मियाँ...!
- निदा फ़ाज़ली
जन्मदिन मुबारक निदा साहब !!
Wednesday, February 15, 2017
“ग़ालिब” की १४८ वीं पुण्यतिथि
आज मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” की १४८ वीं पुण्यतिथि है | इस मौके पर पेश है उनकी एक ग़ज़ल जो मुझे बेहद पसंद है |
दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या / ग़ालिब
दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई[1] फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या
शब्दार्थ:
- ↑ सहायता
- ↑ उपेक्षा
- ↑ मालिक, रखवाला
- ↑ महान उपदेशक
- ↑ आँखें और दिल रस्ते में गलीचे की तरह बिछ जाएगें
- ↑ तलवार और कफ़न
- ↑ प्रशन उठाना, ना-नुकर करना
- ↑ उपदेशक
- ↑ जु्ल्फ़ों के कैदी
- ↑ कैदखाना
- ↑ नगर
- ↑ प्रेम के दुखों का अकाल
Sunday, January 1, 2017
Friday, July 22, 2016
"वो कमरा बात करता था ..."
Posted by
शिवम् मिश्रा
at
7/22/2016 08:50:00 PM
Labels:
कमरा,
कलकत्ता,
घर,
जावेद अख़्तर,
मैं,
मैनपुरी,
यादें
1 comments
आज से ठीक १९ साल पहले मैं कल्कत्ते से मैनपुरी आया था ... तब से यही
हूँ ... पैदाइश के बाद के २० साल कलकत्ता मे गुजारने के बाद मैनपुरी आना और
यहाँ आ कर दोबारा ज़िंदगी को एक नए सिरे से शुरू करना सहज न था ... आज भी
नहीं हैं |
जावेद अख़्तर साहब की यह नज़्म जब मैंने पढ़ी तो लगा जैसे
मेरे लिए ही लिखी गई हो ... सच मे आज भी जब कभी अकेला बैठा सोचता हूँ तो
कल्कत्ते वाले उस फ्लॅट का मेरा वो कमरा बहुत याद आता है ... "वो कमरा बात
करता था |"
मै जब भी जिंदगी की चिलचिलाती धुप में तपकर
मै जब भी दूसरों के और अपने झूट से थककर
मै सबसे लड़ के खुद से हार के
जब भी उस एक कमरे में जाता था
वह हल्के और गहरे कत्थई रगों का एक कमरा
वो बेहद मेहरबा कमरा
जो अपनी नरम मुट्ठी में मुझे
ऐसे छुपा लेता था जैसे
कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डांटे
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है
मै जब भी दूसरों के और अपने झूट से थककर
मै सबसे लड़ के खुद से हार के
जब भी उस एक कमरे में जाता था
वह हल्के और गहरे कत्थई रगों का एक कमरा
वो बेहद मेहरबा कमरा
जो अपनी नरम मुट्ठी में मुझे
ऐसे छुपा लेता था जैसे
कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डांटे
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है
दबीज़ और खासा भरी
कुछ जरा मुश्किल से खुलने वाला
वो शीशम का दरवाजा
की जैसे कोई अक्खड बाप
अपने खुरदुरे सीने में
शफ़कत के समुन्दर को छुपाए हो
वो कुर्सी
और उसके साथ वो जुड़वाँ बहने उसकी
वो दोनों दोस्त थी मेरी
वो एक गुस्ताख मुहफट आईना
जो दिल का अच्छा था
वो बेहंगम-सी अलमारी
जो कोने में खड़ी
इक बूढ़ी अन्ना की तरह
आईने को तनवीह करती थी
वो एक गुलदान
नन्हा सा
बहुत शैतान
उन दोनों पे हसता था
या जहानत से भरी एक मुस्कराहट
और दरीचे पर झुकी वो बेल
कोई सब्ज सरगोशी
किताबे
ताक में और शेल्फ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठी
मगर सब मुन्तजिर इस बात की
मै उनसे कुछ पुछु
सरहाने, नींद का साथी
थकन का चारागार
वो नर्म-दिल तकिया
मै जिसकी गोद में सर रखके
छत को देखता था
छत की कड़ियों में
न जाने कितने अफसानों की कड़ियाँ थी
वो छोटी मेज पर
और सामने दीवार पर आवेज़ा तस्वीरे
मुझे अपनाइयत और यकी से देखती थी
मुस्कुराती थी
उन्हें शक भी नहीं था, एक दिन
मै उनको ऐसे छोड जाऊंगा
मै एक दिन यु भी जाऊँगा
की फिर वापस न आऊंगा
मै अब जिस घर में रहता हू
बहुत ही खूबसूरत है
मगर अक्सर यहाँ खामोश बैठा
वो कमरा बात करता था
-जावेद अख्तर
कुछ जरा मुश्किल से खुलने वाला
वो शीशम का दरवाजा
की जैसे कोई अक्खड बाप
अपने खुरदुरे सीने में
शफ़कत के समुन्दर को छुपाए हो
वो कुर्सी
और उसके साथ वो जुड़वाँ बहने उसकी
वो दोनों दोस्त थी मेरी
वो एक गुस्ताख मुहफट आईना
जो दिल का अच्छा था
वो बेहंगम-सी अलमारी
जो कोने में खड़ी
इक बूढ़ी अन्ना की तरह
आईने को तनवीह करती थी
वो एक गुलदान
नन्हा सा
बहुत शैतान
उन दोनों पे हसता था
या जहानत से भरी एक मुस्कराहट
और दरीचे पर झुकी वो बेल
कोई सब्ज सरगोशी
किताबे
ताक में और शेल्फ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठी
मगर सब मुन्तजिर इस बात की
मै उनसे कुछ पुछु
सरहाने, नींद का साथी
थकन का चारागार
वो नर्म-दिल तकिया
मै जिसकी गोद में सर रखके
छत को देखता था
छत की कड़ियों में
न जाने कितने अफसानों की कड़ियाँ थी
वो छोटी मेज पर
और सामने दीवार पर आवेज़ा तस्वीरे
मुझे अपनाइयत और यकी से देखती थी
मुस्कुराती थी
उन्हें शक भी नहीं था, एक दिन
मै उनको ऐसे छोड जाऊंगा
मै एक दिन यु भी जाऊँगा
की फिर वापस न आऊंगा
मै अब जिस घर में रहता हू
बहुत ही खूबसूरत है
मगर अक्सर यहाँ खामोश बैठा
वो कमरा बात करता था
-जावेद अख्तर
Tuesday, May 17, 2016
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