Tuesday, July 22, 2014

"वो कमरा बात करता था |"

आज से ठीक १७ साल पहले मैं कल्कत्ते से मैनपुरी आया था ... तब से यही हूँ ... पैदाइश के बाद के २० साल कलकत्ता मे गुजारने के बाद मैनपुरी आना और यहाँ आ कर दोबारा ज़िंदगी को एक नए सिरे से शुरू करना सहज न था ... आज भी नहीं हैं |

जावेद अख़्तर साहब की यह नज़्म जब मैंने पढ़ी तो लगा जैसे मेरे लिए ही लिखी गई हो ... सच मे आज भी जब कभी अकेला बैठा सोचता हूँ तो कल्कत्ते वाले उस फ्लॅट का मेरा वो कमरा बहुत याद आता है ...  

"वो कमरा बात करता था |"

मै जब भी जिंदगी की चिलचिलाती धुप में तपकर
मै जब भी दूसरों के और अपने झूट से थककर
मै सबसे लड़ के खुद से हार के
जब भी उस एक कमरे में जाता था
वह हल्के और गहरे कत्थई रगों का एक कमरा
वो बेहद मेहरबा कमरा
जो अपनी नरम मुट्ठी में मुझे
ऐसे छुपा लेता था जैसे
कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डांटे
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है

दबीज़ और खासा भरी
कुछ जरा मुश्किल से खुलने वाला
वो शीशम का दरवाजा
की जैसे कोई अक्खड बाप
अपने खुरदुरे सीने में
शफ़कत के समुन्दर को छुपाए हो
वो कुर्सी
और उसके साथ वो जुड़वाँ बहने उसकी
वो दोनों दोस्त थी मेरी
वो एक गुस्ताख मुहफट आईना
जो दिल का अच्छा था
वो बेहंगम-सी अलमारी
जो कोने में खड़ी
इक बूढ़ी अन्ना की तरह
आईने को तनवीह करती थी
वो एक गुलदान
नन्हा सा
बहुत शैतान
उन दोनों पे हसता था
या जहानत से भरी एक मुस्कराहट
और दरीचे पर झुकी वो बेल
कोई सब्ज सरगोशी
किताबे
ताक में और शेल्फ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठी
मगर सब मुन्तजिर इस बात की
मै उनसे कुछ पुछु
सरहाने, नींद का साथी
थकन का चारागार
वो नर्म-दिल तकिया
मै जिसकी गोद में सर रखके
छत को देखता था
छत की कड़ियों में
न जाने कितने अफसानों की कड़ियाँ थी
वो छोटी मेज पर
और सामने दीवार पर आवेज़ा तस्वीरे
मुझे अपनाइयत और यकी से देखती थी
मुस्कुराती थी
उन्हें शक भी नहीं था, एक दिन
मै उनको ऐसे छोड जाऊंगा
मै एक दिन यु भी जाऊँगा
की फिर वापस न आऊंगा
मै अब जिस घर में रहता हू
बहुत ही खूबसूरत है
मगर अक्सर यहाँ खामोश बैठा
वो कमरा बात करता था
-जावेद अख्तर

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